हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय
जन्म: सन् 1907, आरत दुबे का छपरा, बलिया (उत्तर प्रदेश) प्रमुख रचनाएँ : के फूल, कल्पलता, विचार और वितर्क, कुटज, विचार-प्रवाह, आलोक पर्व, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद (निबंध-संग्रह); बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचंद्रलेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा (उपन्यास); सूर साहित्य, कबीर, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, नाथ संप्रदाय, कालिदास की लालित्य-योजना, हिंदी साहित्य का आदिकाल, हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास (आलोचना साहित्येतिहास) संदेश रासक, पृथ्वीराजरासो, नथ सिद्धों की बानियाँ (ग्रंथसंपादन); विश्व भारती (शांतिनिकेतन) पत्रिका का संपादन।
पुरस्कार व सम्मान : साहित्य अकादेमी ('आलोक पर्व' पर) भारत सरकार द्वारा 'पद्मभूषण', लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट्
मृत्यु सन् 1979, दिल्ली में
मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गत, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्य कर्म भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास की रचनात्मक परिणति है। हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बांग्ला आदि भाषाओं व उनके साहित्य के साथ इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की व्यापकता व गहनता में पैठ कर उनका अगाध पाडित्य नवीन मानवतावादी सर्जना और आलोचना की क्षमता लेकर प्रकट हुआ है। वे ज्ञान को बोध और पांडित्य की सहृदयता में ढाल कर एक ऐसा रचना-संसार हमारे सामने उपस्थित करते हैं जो विचार की तेजस्विता, कथन के लालित्य और बंध की शास्त्रीयता का संगम है। इस प्रकार उनमें एक साथ कबीर, रवींद्रनाथ व तुलसी एकाकार हो उठते हैं। इसके बाद, उससे जो प्राणधारा फूटती है वह लोकधर्मी रोमँटिक धारा है, जो उनके उच्च कृतित्व को सहजग्राह्य बनाए रखती है। उनकी सांस्कृतिक दृष्टि जबरदस्त है।
उसमें इस बात पर विशेष बल है कि भारतीय संस्कृति किसी एक जाति की देन नहीं, बल्कि समय-समय पर उपस्थित अनेक जातियों के श्रेष्ठ साधनांशों के लवण-नीर संयोग से उसका विकास हुआ है। उसकी मूल चेतना विराट मानवतावाद है, जिसके संस्पर्श से कला और साहित्य ही नहीं, संपूर्ण जीवन ही सौंदर्य व आनंद से परिपूर्ण हो उठता है। यह द्विवेदी जी के सभी उपन्यास समाज के जात-पाँत और मजहबों में विभाजन और आधी आबादी (स्त्री)के दलन की पीड़ा को सबसे बड़े सांस्कृतिक संकट के रूप पहचानने, रचने और सामंजस्य में समाधान खोजने का साहित्य है।
वे स्त्री को सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा शिकार मानते हैं तथा सांस्कृतिक ऐतिहासिक संदर्भ में उसकी पीड़ा का गहरा विश्लेषण करते हुए सरस श्रद्धा के साथ उसकी महिमा प्रतिष्ठित करते हैं- विशेषकर बाणभट्ट की आत्मकथा में। मानवता और लोक से विमुख कोई भी विज्ञान, तंत्र-मंत्र, विश्वास या सिद्धांत उन्हें ग्राह्य नहीं है और मानव की जिजीविषा और विजययात्रा में उनकी अखंड आस्था है। इसी से वे मानवतावादी साहित्यकार व समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
द्विवेदी जी का आलोचक व्यक्तित्व हिंदी- चिंताधारा की सहज लोक-परंपरा को पहचान लेता है और उसी से संबद्ध नाथों सिद्धों और कबीर से हिंदी की साहित्य परंपरा को जोड़ कर उसे एक प्रगतिशील मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है। भक्तिकाल को भारतीय चिंताधारा का सहज विकास मानने वाले इतिहासकार के रूप में उनकी भूमिका ऐतिहासिक महत्त्व रखती है।
द्विवेदी जी का निबंध साहित्य इस अर्थ में बड़े महत्त्व का है कि साहित्य-दर्शन तथा समाज-व्यवस्था संबंधी उनकी कई मौलिक उद्भावनाएँ मूलतः निबंधों में ही मिलती हैं, पर यह विचार सामग्री पांडित्य के बोझ से आक्रांत होने की जगह उसके बोध से अभिषिक्त हैं। अपने लेखन द्वारा निबंध-विधा को सर्जनात्मक साहित्य की कोटि में ला देने वाले द्विवेदी जी के ये निबंध व्यक्तित्व-व्यंजना और आत्मपरक शैली से युक्त हैं।
यहाँ प्रस्तुत ललित निबंध शिरीष के फूल लेखक के संग्रह कल्पलता से उद्धृत हैं। इसमें लेखक आँधी तू और गरमी की प्रचंडता में भी अवधूत की अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौंदर्य बिखेर रहे शिरीष के माध्यम से मनुष्य की अजय जिजीविषा और तुल कोलाहल कलह के बीच धैर्यपूर्वक लोक के साथ चितारत, कर्तव्यशील बने रहने को महाने मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करता है। ऐसी भावधारा में बहते हुए उसे देह-बल के ऊपर आत्मबल का महत्त्व सिद्ध करने वाली इतिहास विभूति गांधीजी की याद हो आती है तो वह गांधीवादी मूल्यों के अभाव की पीड़ा से भी कसमसा उठता है। निबंध की शुरुआत में लेखक शिरीष पुष्प की कोमल सुंदरता के जाल बुनता है, फिर उसे भेदकर उसके इतिहास में और फिर उसके जरिये मध्यकाल के सांस्कृतिक इतिहास में पैठता है; फिर तत्कालीन जीवन व सामंती वैभव-विलास को सावधानी से उकेरते हुए उसका खोखलापन भी उजागर करता है। लेखक अशोक के फूल के भूल जाने की तरह ही शिरीष को नजरअंदाज किए जाने की साहित्यिक घटना से आहत है और इसी में उसे सच्चे कवि का तत्त्व-दर्शन भी होता है। उसके अनुसार योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमी की सरस पूर्णता एक साथ उपलब्ध होना सत्क होने की एकमात्र शर्त है। ऐसा कवि ही समस्त प्राकृतिक और मानवीय वैभव में रमकर भी चुकता नहीं और निरंतर आगे बढ़ते जाने की प्रेरणा देता है।
शिरीष के पुराने फलों को अधिकार-लिप्सु खड़खड़ाहट और नए पत्ते फलों द्वारा उन्हें धकियाकर बाहर निकालने में लेखक साहित्य, समाज व राजनीति में पुरानी और नयी पीढ़ी के द्वंद्व को संकेतित करता है तथा स्पष्ट रूप से पुरानी पीढ़ी और हम सब में नयेपन के स्वागत का साहस देखना चाहता है। इस निबंध का शिल्प इसी में चर्चित इक्षुदंड की तरह है- सांस्कृतिक संदर्भों व शब्दावली की भड़कीली खोल के भीतर सहज भावधारा के मधुरस से युक्त। यह हर तरह से आस्वाद्य और प्रयोजनीय है तथा इस प्रकार लेखक के प्रतिनिधि निबंधों में से एक है।